''प्रदूषणों के विषैले प्रभाव' के कारण यह 'सुन्दर प्रगति' भी ज़हरीली नागिन हो गयी है | धन का लोभ भी आचरण में एक बदनुमा दाग है |'
(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
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बिना
‘शान्ति’ के व्यर्थ हैं, ‘सुख के सभी
विधान’ |
‘आचरणों से हीन’ हैं, वृथा
सभी ‘उत्थान’ ||
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सारे जग
में हो गयी,
‘प्रदूषणों की भीड़’ |
कितने गँदले हो
गये, हैं ‘संस्कृति के
नीड़’ ||
‘प्रगति’ बहुत अनिवार्य है, और ‘समय की माँग’ |
मैला करने का इसे, क्यों रचते हम ‘स्वाँग’
||
‘पर्यावरण’ की
टूटती, ‘साँस’ में
फूको ‘प्राण’ |
‘आचरणों से हीन’
हैं, वृथा सभी
‘उत्थान’ ||१||
काट रहे वन खोदते, ‘ऊँचे
अडिग पहाड़’ |
चबा रही ‘सौन्दर्य’ को,
है ‘लालच की दाढ़’ ||
‘प्रकृति-प्रिया’
के कर दिये, ‘केश-वेश’ विच्छिन्न’ |
मिटा दिये ‘तन’ के सभी,
‘सुभग-मनोरम चिन्ह’ ||
‘धन की भूख’ ने
खा लिये, ‘हरे भरे
उद्यान’ |
‘आचरणों से हीन’
हैं, वृथा सभी
‘उत्थान’ ||२||
जल–थल–गगन
में भर
गयी, है मैली ‘दुर्गन्ध’
|
‘शोर’ से ‘मलय-समीर’ के,
घुटे हैं ‘मीठे छन्द’ ||
‘समय’ से पहले
‘प्रलय’ के, लगते
हैं आसार |
‘तन-मन-आत्मा’ से हुआ, है ‘रोगी’ ‘संसार’
||
‘कृत्रिमता’ से
मिट गयी, ‘नैसर्गिक पहँचान’ |
‘आचरणों से हीन’
हैं, वृथा सभी
‘उत्थान’ ||३||
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सुन्दर और सटीक पंक्तियाँ !!
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