संस्कृत में एक श्लोक 'चाणक्य-नीति'/भर्तृहरिनीति में है-'दुर्जन: परिहर्तव्य: विद्या लंकृटापि सन्, मणिना भूशितो सर्प: किमसौ न भयंकर:' अर्थात विद्या से सजा हुआ भी दुष्ट त्यागने योग्य ही होता है | विद्या जो विनाश करे, वह अविद्या ही है |दीपक जो आग लगाये तो अभिशाप है | सुशिक्षित लोग व्यभिचार,भ्रष्टाचार अनाचार अत्याचार करें तो उन की विद्या भी अविद्या ही है | यह सर्ग केवल नारी पर विषयित नहीं है | हाँ 'नारी-उत्पीडन' के कुछ अंश दोहराए गये हैं |
(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
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‘चाँद’ से आगे
बढ़ गया, ‘ज्ञान और विज्ञान’ |
किन्तु
सुशिक्षित लोग भी,रचते ‘नाश-विधान’ ||
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लोभी, लम्पट, धूर्त जन, कर ‘दहेज़’
की माँग |
’मधुरिम मानव-प्रेम’ में, लगा
रहे हैं ‘आग’
||
जुवा खेल, धन
उड़ा कर, करते ‘मदिरा-पान’
|
कुछ जन
पत्नी, सुता - माँ, करते
अपमान ||
ये ‘भारत की
संस्कृति’, से हो कर
अनजान |
ऐसे शिक्षित लोग भी, रचते ‘नाश-विधान’
||१||
कभी ‘प्रगति’ के नाम पर, कर
नारी को नग्न |
कामुक-लोलुप नज़र’ से, देख
देख हो मग्न
||
‘अंग - प्रदर्शन’ के लिये, करते ‘नये प्रयोग’
|
देख ‘नग्नता’ घूमते,
‘तन के लोलुप’
लोग ||
‘खड्ग’ न बदली है वही, बदली केवल ‘म्यान’ |
निज चरित्र का हनन कर, रचते
‘नाश-विधान’ ||२||
‘स्नेह-ओज-गुण-खान’ है,
हर नारी का ‘रूप’
|
‘स्त्री-धन’ संसार में, होता
परम ‘अनूप’ ||
अब तक तो ‘इतिहास’ ने, की है ‘भारी
भूल’ |
नर नारी
को मानते, रहे ‘चरण
की धूल’ ||
‘वैज्ञानिक - युग’ में सुलभ, है ‘नारी - सम्मान’ |
पर नर उस को दर्द दे, रचते ‘नाश-विधान’ ||३||
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