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शुक्रवार, 24 मई 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (ड) मीनार(विकास की ऊपरी ऊंचाई ) (१) चाँदनी के दाग


यह सर्ग (मीनार) वास्तव में एक  गम्भीर व्यंग्य  है इस लिये शब्द -शक्ति व्यंजना इस तरह इस में अभिधा और लक्षणा के साथ मिलाई गयी है कि  यथार्थ स्पष्ट  अर्थ  परिलक्षित कर रहा है|इस  रचना में आज कल केझूठे फैशन के आडम्बर की ओर  उँगली उठाई गयी है | कोई कोई व्यक्ति ऊँचाई के लोभ में देश  तक को  बेचने को तैयार  हैं विद्या कला खेल की प्रतिभा को भी दाँव पर लगाने को  कटिबद्ध  हैं ! (सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार) 

मौन  रहें  तो  सालते,  हैं  ‘दिल  के  जज्वात’ |
कहें  कहाँ ‘किस द्वार’ पर, ‘अपने घर की बात’ ??
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चमका   जितना   ‘चन्द्रमा’,   है   उतना   ‘अंधियार’ |
सुनेगा   जो   भी   करेगा,  हम   पर   ‘व्यंग्य-प्रहार’ ||
बड़े    कँटीले    हो    गये,    हैं    ‘विकास के फूल’ |
‘सदाचार’   के    देखिये,    हैं    ‘ये सुख’   प्रतिकूल ||
‘अखलाकों’   पर   हो   रहा,   है   ‘मीठा आघात’  |
कहें  कहाँ ‘किस द्वार’  पर, ‘अपने घर की बात’ ??१??


‘पंख’   उठा   कर   दिखाते,   ‘सुन्दरता’   ‘परबाज़’ |
फँसे  ‘कशिश’  में  झपट  कर,  टूट  पड़े  हैं  ‘बाज़’ ||



नारी   ‘दर्दों’   से   दबी,   गयी   है   ऐसे   ऊब  |
‘गज’   के   पाँवों  से  गयी,  कुचली  ‘कोमल  दूब’ ||
‘नारीत्व-मन-गगन’   में,   घिरी    है   ‘काली  रात’ |
कहें  कहाँ ‘किस द्वार’  पर, ‘अपने घर की बात’ ??२??

कितनी   ऊँची   उठ    गयी,  ‘विकास  की  मीनार’ |
धीरे   धीरे   हो   गयी,  ‘नील  गगन’   के   पार  ||
‘पाखण्डों’  से  घिर   गये,   ‘धर्मों   के   परिवेश’ |
जुवा - लाटरी’   में   फँसा,   उइलाझा  अपना  देश  || ‘नशे   के   कोहरे’   में  फँसा,  ‘बचपन  रूप  प्रभात’ |
कहें  कहाँ ‘किस द्वार’  पर, ‘अपने घर की बात’ ??३??
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1 टिप्पणी:

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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