आज 'मातृ-दिवस' के अवसर पर 'मात्र-शक्ति' को शुभ कामना ! सर्ग की सातवीं इस रचना में च्रीछिपे शराफत का चोला उतार फेंक कर भोली भूख से मज़बूर बालाओं किशोरियों को झूठ प्रेम-जाल में फां कर विवाह का झांसा दे कर बर्वाद करने वाले नराधमों की और संकेत है |
(सारे चित्र 'गूगल-खोज'से साभार)
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बेच रहीं ‘तन’ नारियाँ, भूखी
नक़द-उधार |
घिरा ‘अभावों’ से बहुत, है ‘आधा
संसार’ ||
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‘कंगालों
की बस्तियों’, में
जाते हैं नित्य |
‘कारूँ-कुबेर-कु-सुत कुछ’, करते
‘कलुष कु-कृत्य’ ||
‘रातों’
में यों घूमते,
जैसे कोई ‘चोर’ |
ढूँढ ‘कुमारी छोरियाँ’,
ये ‘मन चले किशोर’ ||
खरीद कर
‘मज़बूर तन’, शान्त करते
‘ज्वार’ |
घिरा ‘अभावों’ से बहुत,
है ‘आधा संसार’
||१||
और कई तो
‘काइयाँ’, ‘जालसाज़ ठग - धूत’ |
‘जाल’ बिछ कर
‘प्रेम’ का, ‘धवानों
के पूत’ ||
‘मीठे मीठे वचन’
कह, बुला के
अपने पास |
दिखा ‘प्रीति
का स्वप्न-सुख’, ‘बालाओं’ को फांस ||
कहते प्यारी
हम तुम्हें, देंगे
‘मन का प्यार’ |
घिरा ‘अभावों’ से बहुत,
है ‘आधा संसार’
||२||
कई दिनों
तक खेलते, ‘कुटिल’
‘काम की केलि’ |
होंती है
जब ‘फल - वती’, ‘कौमार्य
की बेलि’ ||
तब ये ‘पामर’
‘रूपसी’, से लेते
मुहँ मोड़ |
‘दीन दशा’
में कलपती, देते
उस को छोड़ ||
पछताती ‘मँझधार’
में, बेचारी ‘लाचार’
|
घिरा ‘अभावों’ से बहुत,
है ‘आधा संसार’
||३||
ब्लॉग-'प्रसून' में मात्री-दिवस पर विशेष प्रस्तुति
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सार्थक ,भावनात्मक अभिव्यक्ति .
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