झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (ज)स्वर्ण-कीट) (३)सुनहरी मकड़ियाँ |
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‘लोभ की पैनी धार’ की, पड़ी है ऐसी मार |
‘भावुकता’ घायल हुई, ‘प्रेम’ में पड़ी ‘दरार’ ||
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‘वित्त्वाद की मकड़ियाँ’, मन में ली हैं पाल |
चुपके चुपके बुन रही, हैं ‘लालच के जाल’ ||
‘जज्वों’ से सूने हुये, ‘दिल’ बन गये ‘मशीन’ |
रूखे - नीरस हो गये, सभी भाव रंगीन ||
‘स्नेह के कमलों’ पर पड़ी, ‘तेज़ाबी बौछार’ |
‘भावुकता’ घायल हुई, ‘प्रेम’ में पड़ी ‘दरार’ ||१||
दुखी और भी दुखी हैं , शोषित हो कंगाल |
खाते ‘रूखी रोटियाँ’, बिन ‘सब्जी’ बिन ‘दाल’ ||
कई ‘लुटेरे’ लूटते, उड़ा रहे ‘तर माल’ |
ऊपर से ओढ़े हुये, ‘राजनीति की खाल’ ||
‘जमा खोरियों’ के कई, गरम हुये ‘बाज़ार’ |
‘भावुकता’ घायल हुई, ‘प्रेम’ में पड़ी ‘दरार’ ||२||
‘धनिकों–निर्धन’ में हुआ, है ‘खाई सा भेद’ |
‘मिट्टी’ से सस्ता हुआ, है ‘श्रीमिकों का स्वेद’ ||
‘समता की कचनार’ पर, ‘हिम’ का हुआ निपात |
और ‘एकता-बेलि’ पर, ‘ओलों का आघात’ ||
जनता यदि न सचेत हो, करेगी क्या सरकार |
‘भावुकता’ घायल हुई, ‘प्रेम’ में पड़ी ‘दरार’ ||३||
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आपकी इस प्रविष्टि क़ी चर्चा सोमवार [15.4.2013]के चर्चामंच1215 पर लिंक क़ी गई है,
जवाब देंहटाएंअपनी प्रतिक्रिया देने के लिए पधारे आपका स्वागत है | सूचनार्थ..
बहुत सुन्दर और प्रेरक रचना लिखी है आपने मित्रवर!
जवाब देंहटाएं.बहुत सुन्दर भाव .सुन्दर प्रस्तुति
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