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रविवार, 14 अप्रैल 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (ज)स्वर्ण-कीट) (३)सुनहरी मकड़ियाँ |



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‘लोभ की पैनी धार’ की, पड़ी है ऐसी मार |
‘भावुकता’ घायल हुई, ‘प्रेम’ में पड़ी ‘दरार’ ||



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‘वित्त्वाद की मकड़ियाँ’, मन में ली हैं पाल |
चुपके चुपके बुन रही, हैं ‘लालच के जाल’ ||
‘जज्वों’ से सूने हुये, ‘दिल’ बन गये ‘मशीन’ |
रूखे - नीरस  हो  गये,  सभी भाव रंगीन ||
‘स्नेह के कमलों’ पर पड़ी, ‘तेज़ाबी बौछार’ |
‘भावुकता’ घायल हुई, ‘प्रेम’ में पड़ी ‘दरार’ ||१||


दुखी और भी दुखी हैं , शोषित हो कंगाल |
खाते ‘रूखी रोटियाँ’, बिन ‘सब्जी’ बिन ‘दाल’ ||
कई  ‘लुटेरे’  लूटते,  उड़ा  रहे  ‘तर  माल’ |
ऊपर से  ओढ़े  हुये,  ‘राजनीति  की  खाल’ ||
‘जमा खोरियों’  के  कई, गरम  हुये  ‘बाज़ार’ |
‘भावुकता’ घायल हुई, ‘प्रेम’ में पड़ी ‘दरार’ ||२||


‘धनिकों–निर्धन’  में  हुआ, है  ‘खाई सा भेद’ |
‘मिट्टी’ से सस्ता  हुआ, है ‘श्रीमिकों का स्वेद’ ||
‘समता की कचनार’ पर, ‘हिम’ का हुआ निपात |
और  ‘एकता-बेलि’  पर,  ‘ओलों  का आघात’ ||
जनता यदि न सचेत  हो, करेगी क्या सरकार |
‘भावुकता’ घायल हुई, ‘प्रेम’  में पड़ी ‘दरार’ ||३||

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1 टिप्पणी:

About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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