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रविवार, 7 अप्रैल 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य)(च)जोंक (१)(कंट-माल)


नारी शोषण की बातें केवल भारी भरकम भाषणों में होती हैं | बिना समा-
धान ही आवाज़ थम गयी है | जब तक सुधार-समाधान न हो,साहित्यकार को अपनी आवाज़ सत्याग्रह के रूप में बिना वाहवाही की लालसा के निरंतर 
उठाने देना चाहिये | (गूगल में साहसी यथार्थदर्शी चित्र- प्रकाशक साहित्यकारों को सधन्यवाद वधायी एवं आभार)    
 



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शोषण के हाथों थमा, ‘पैना अत्याचार’ |
‘मानवता’ के बदन पर, कितने हुये प्रहार ||


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चुरा चुरा कर बेचते, ‘प्रकृति के परिधान’ |
‘चीर धरा का’ हरण कर, बने निठुर इंसान ||



‘घूस-कमीशन-दानवों’,  की  आयी  है बाढ़ |
‘प्रगति की हिरनी’ को चबा, रही है इनकी ‘दाढ’ ||



‘लाभ-लोभ’ ने ‘लूट’ का, किया गरम बाज़ार |
‘मानवता’ के बदन पर, कितने हुये प्रहार ||१||


‘ट्यूशन’ ने ‘तालीम’ में, जमा लिये हैं पाँव |
‘गिरू-शिष्य का प्रेम’ है, चढ़ा इसी के दाँव ||


चुरा चुरा कर बेचते, हैं ‘सरकारी माल’ |
‘चोरों के दुश्चक्र’ से, हुआ देश ‘कंगाल’ ||
‘सेवक’ सेवा’-रत कई, करते हैं व्यापार |
‘मानवता’ के बदन पर, कितने हुये प्रहार ||२||


रुके दफ्तरों में अगर, ‘कुलटा पापिन घूस’ |
‘ट्यूशन’ भी रुक जायेगी, रक्त रहे ये चूस ||
सबसे पहले रोकिये,  ‘पापी  कुटिल  दहेज़’ |
जिस की ‘मार’ से ‘देश का सीना’ है  लवरेज़ ||
बिना  एक  के  दूसरे,  का  रुकना  बेकार |
‘मानवता’ के बदन पर, कितने हुये प्रहार ||३||
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About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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