झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (च) जोंक (२) प्रेत-पिशाचिनी |
(सारे चित्र 'गूगल-खोज से साभार)
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‘शोषण’ के बढ़ने लगे, भारी अत्याचार |
‘भारत की धरती दबी, सह कर ‘इतने भार’ ||
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ताक़ में हमने रख दिया, है ‘राष्ट्र का स्वत्व’ |
सम्विधान से अधिक हैं, रखते ‘निजी प्रभुत्व’ ||
लम्पट, लोभी लालची, नेता हुये अनेक |
‘सिद्धांतों को जला कर, ‘रोटी’ रहे हैं सेंक ||
‘अमन-चैन’ के शीश पर, कितने किये प्रहार |
‘भारत की धरती दबी, सह कर ‘इतने भार’ ||१||
‘अनाचार का हथौड़ा’, ‘हठधर्मी के हाथ’ |
‘सदाचार’ का तोडने, निर्दयता से ‘माथ’ ||
‘नीति-न्याय के माथ’ पर, ठोक रहे ‘गुलमेख’ |
‘प्रजातंत्र’ घायल किया, और रहे हम देख ||
‘दया-मनुजता’-धर्म को, हमने दिया है मार |
‘भारत की धरती दबी, सह कर ‘इतने भार’ ||२||
‘दहेज’ को रोको तथा, रोको ‘वैरिन घूस’ |
इन दोनों ने ‘प्रेम-रस’, लिया है सारा चूस ||
दोनों ‘प्रेत-पिशाचिनी’, जैसे क्रूर-कराल |
‘मानवता’ को खा गये,चल कर कुटिल ‘कुचाल’ ||
कौन बचाए अब हमें, सुन कर करुण पुकार |
‘भारत की धरती दबी, सह कर ‘इतने भार’ ||३||
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