'काव्य-ग्रन्थ' के क्रम में प्रकाशित इस रचना का सम्बन्ध किसी सामयिक घटना से३ नहीं है | रचना सेंसर की छूट के अनुचित लाभ की और संकेत करती है और इशारा है धन के आगे 'रूप समर्पण' के युग परिवर्तन को बदनाम किये जाने की ओर | मर्यादा का उल्लंघन तो हो ही रहा है | हमारा ध्यान उधर भी हिना चाहिये |
(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
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‘यौन-क्रान्ति’
के नाम पर, ओढ़े ‘मलिन विचार’ |
‘आठो रतियाँ’
कर
रहीं,
‘कामातुर
व्यवहार’ ||
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‘काम-वासना’ के
लिये,
बन कर के ‘सामान’
|
‘रति’ खुल कर के आ गई, खो कर निज ‘सम्मान’ ||
‘इन्सानी जज्वात’ में, ‘कामुक ज़हर’ उंडेल |
‘नागिन’ बन कर ‘वासना’, खेल रही
है
‘खेल’ ||
’संयम’ को डसने चली, ‘केंचुल-वसन’ उतार |
‘आठो रतियाँ’
कर रहीं, ‘कामातुर
व्यवहार’ ||१||
कभी ‘द्रौपदी’ दुखी थी, देख
के ‘लुटती लाज’ |
स्वयम ‘निर्वसन’ हो रही, बड़े चाव से आज ||
‘विज्ञापन-व्यवसाय’ का, ‘लालच’
से ‘गठजोड़’ |
‘अंग-प्रदर्शन’ के लिये, लगी हुई है होड़ ||
'भौतिक सुख' की चाह में, है 'मन की बीमार' |
‘आठो रतियाँ’ कर रहीं, ‘कामातुर व्यवहार’ ||२||
'भौतिक सुख' की चाह में, है 'मन की बीमार' |
‘आठो रतियाँ’ कर रहीं, ‘कामातुर व्यवहार’ ||२||
‘वसन-हीन तन’ देख
कर, हुये ‘अशीतल’ नैन |
‘कामाग्नि’ है दहकती,
छिना
‘चित्त का चैन’ ||
‘इच्छा’ अनियन्त्रित हुई, ‘म्रर्यादा
से हीन’ |
‘प्यासी’ हो
कर भटकती, लेती ‘हर सुख’ छीन ||
‘शान्त स्नेह के
तेल’
में, बिखराती
‘अंगार’ |
‘आठो रतियाँ’
कर रहीं, ‘कामातुर
व्यवहार’ ||३||
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सामयिक दिल्ली की घटना एक असहनीय भर्त्सनीय घृणित और अक्षम्य है |इस जघन्य अपराध की मृत्यु-दण्ड ही होसकती है | इस पर प्रतिक्रया मेरे ब्लॉग 'प्रसून' में व्यक्त की गयी जय |स्वागत है आप सब का |
सामयिक दिल्ली की घटना एक असहनीय भर्त्सनीय घृणित और अक्षम्य है |इस जघन्य अपराध की मृत्यु-दण्ड ही होसकती है | इस पर प्रतिक्रया मेरे ब्लॉग 'प्रसून' में व्यक्त की गयी जय |स्वागत है आप सब का |
सुन्दर ,समयिल्क ,सटीक रचना
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