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सोमवार, 22 अप्रैल 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (झ) दिगम्बरा रति (५)प्यासी वासना |


'काव्य-ग्रन्थ' के क्रम में प्रकाशित इस रचना का सम्बन्ध किसी सामयिक घटना से३ नहीं है | रचना सेंसर की छूट के  अनुचित लाभ की और संकेत करती है और इशारा है धन के आगे 'रूप समर्पण' के युग परिवर्तन को बदनाम किये जाने की ओर | मर्यादा का उल्लंघन तो हो ही रहा है | हमारा ध्यान उधर भी हिना चाहिये |
(सारे चित्र  'गूगल-खोज' से साभार)
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‘यौन-क्रान्ति’ के  नाम  पर, ओढ़े  ‘मलिन विचार’ |
‘आठो रतियाँ’   कर   रहीं,   ‘कामातुर व्यवहार’ ||
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‘काम-वासना’  के   लिये,  बन कर  के  ‘सामान’ |
‘रति’ खुल कर के आ गई, खो कर निज ‘सम्मान’ ||
‘इन्सानी  जज्वात’   में,   ‘कामुक  ज़हर’   उंडेल |
‘नागिन’  बन कर ‘वासना’,  खेल  रही  है  ‘खेल’ ||
’संयम’  को  डसने   चली,   ‘केंचुल-वसन’  उतार |
‘आठो रतियाँ’  कर   रहीं,   ‘कामातुर व्यवहार’ ||१||


कभी  ‘द्रौपदी’  दुखी  थी,   देख  के  ‘लुटती लाज’ |
स्वयम  ‘निर्वसन’  हो  रही,   बड़े चाव  से  आज  ||
‘विज्ञापन-व्यवसाय’  का,   ‘लालच’  से  ‘गठजोड़’ |
‘अंग-प्रदर्शन’   के    लिये,    लगी   हुई    है    होड़ ||
'भौतिक सुख'   की  चाह  में,  है  'मन की बीमार' | 
‘आठो रतियाँ’   कर   रहीं,   ‘कामातुर व्यवहार’ ||२||


‘वसन-हीन तन’  देख  कर,  हुये  ‘अशीतल’  नैन |
‘कामाग्नि’  है  दहकती,  छिना  ‘चित्त का चैन’  ||
‘इच्छा’   अनियन्त्रित   हुई,   ‘म्रर्यादा  से  हीन’ |
‘प्यासी’ हो कर भटकती,  लेती  ‘हर सुख’  छीन  ||
शान्त  स्नेह  के  तेल’  में,   बिखराती  ‘अंगार’ |
‘आठो रतियाँ’  कर   रहीं,   ‘कामातुर व्यवहार’ ||३||


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सामयिक दिल्ली की घटना एक असहनीय भर्त्सनीय घृणित और अक्षम्य है |इस जघन्य अपराध की मृत्यु-दण्ड ही होसकती है | इस पर प्रतिक्रया मेरे ब्लॉग 'प्रसून' में व्यक्त की गयी जय |स्वागत है आप सब का |

1 टिप्पणी:

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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