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शनिवार, 20 अप्रैल 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (झ) दिगम्बरा रति (४) लूटे ‘अनंग’-‘पतंग’


(सारे चित्र 'गूगल-खोप्ज' से साभार!)
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कितने  ‘मैले’  हो  गये,  ‘प्रेम-हँस के पंख’ |
‘सदाचार की वायु’ में,  उछली  इतनी  ‘पंक’ ||

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‘सम्बन्धों  की  नाव’  में,   ‘रिश्तों  की  पतवार’ |
दोनों  ‘टूटे’  किस  तरह,   पार  करें   ‘मझधार’ ||
‘सीताओं’  को  मिल  रहा,  घर  में ही  ‘वनवास’ |
‘कौशल्या’   भी  बन  गयीं,  ‘कैकेयी’  सी  सास ||
‘लखन-भरत के स्नेह’  में,  लगे ‘स्वार्थ  के  डंक’ |
‘सदाचार  की  वायु’  में,  उछली इ तनी ‘पंक’ ||१||


‘प्रगति’  का  हमको  मिला  है, सा  ‘नया इनाम’ |
‘नयी उम्र की फ़सल’  भी,  नशे  की  हुई गुलाम ||
‘फैशन शो  की  नग्नता’,   देख   के  ‘नौनिहाल’ |
हल  करने   को  घूमते,   कामुक  ‘कई  सवाल’ ||
‘भोलेपन’  पर  लग  गये, कितने ‘मलिन  कलंक’ |
‘सदाचार  की वायु’  में,  उछली  इतनी  ‘पंक’ ||२||


‘छोटी   छोटी  तितलियाँ’,  ढूँढ  रही   हैं   ‘फूल’ |
‘कोमल-कमसिन  कोख’  में, पलने  लगी है ‘भूल’ ||
‘मर्यादा की   डोर'   से,  ’लाज’ की  बँधी  ‘पतंग’ |
‘दाँव-पेच’  से   कट   गयी,  लूटे   उसे  ‘अनंग’ ||
‘बालापन  के  पटल’   पर,   लिखे  ‘वासना-अंक’ |
‘सदाचार  की वायु’  में,  उछली  इतनी  ‘पंक’ ||३||


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2 टिप्‍पणियां:

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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