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गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (झ) दिगम्बरा रति (३)सभ्य आदिमानव |


(सारे चित्र 'गूगल-खोप्ज' से साभार!० चित्र जो इस रचना के लिये पुष्टिकारक होते, वे मर्यादा विरुद्ध होने के कारण नहीं डाले
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‘नग्नवाद’  ने  आजकल,  किये कलुष व्यवहार |
‘गंगाजल’  में  घुल गयी,  है ‘मदिरा की धार’ ||

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‘लाज-शील’  के  देखिये,  टूटे  ‘नाज़ुक  तार’ |
‘चीर-हरण’  के  लिये  खुद,  ‘द्रौपदियाँ’ तैयार |
बहुत  भला  होता  नहीं,  यह  ‘जीने का ढंग |
‘आचरणों की सतह’  पर,  चढ़ा  ‘प्रदूषित रंग’ ||
‘आदिमानवों’ की  तरह,  खुले  ‘मिथुन-आचार’ |
‘गंगाजल’ में घुल गयी,  है ‘मदिरा की धार’ ||१||


टूट  गयी  है ‘हया  की,  कनकैया  की  डोर’ |
देखो, ‘प्रगति की आँधियों’,  ने दी यों झकझोर ||
‘कच्चे तिलों’ में ‘वासना’,  का  पनपा है ‘तेल’ |
‘कमसिन कलियाँ औ भ्रमर’, खेलें ‘कामुक खेल ||
‘पूनम’ से पहले  उठा,  है  ‘सागर  में  ‘ज्वार’ |
‘गंगाजल’ में घुल गयी,  है ‘मदिरा की धार’ ||२||



‘धन की प्यासी तितलियों’, का अब बुरा है हाल |
‘पंख के वसन’  उतार कर, कमा रही हैं ‘माल’ ||
‘आचरणों की झील’ के, नीर’  में भड़की ‘आग’ |
इन्हें देख कर ‘रूप  की, प्यास’  रही  है जाग ||
ज्यों  बादल  को  काटती, ‘बिजली की तलवार’ |
‘गंगाजल’ में घुल गयी,  है ‘मदिरा की धार’ ||३||

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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