'नग्नता' उस युग की मजबूरी थी, जब वस्त्रों की खोज न हो सकी थी | लज्जा आदि मानसिक गुणों का विकास नहीं हुआ था और 'पशुता' के करीब यह अवस्था थी | स्त्री के मामले में 'शक्तिवाद' ही था केवल | 'आधुनिकता' 'यौन-स्वेच्छाचार' ही तो नहीं ! घिसे पिटे आडम्बर- पाखंडों का विरोध तो करना नहीं चाहते, उलटे झूठी मिथ्या 'यौन-क्रान्ति' के नाम पर 'नग्नवाद' के पीछे 'पशु-दौड़' की होड़ लग गयी है |
(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार ! चित्र 'विषय-वस्तु' के अनुकूल हैं)
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‘परिवर्तन’ के देखिये, बड़े निराले
ढंग |
‘दाँव-पेच’ से कट रही, ‘मर्यादा की पतंग’ ||
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हुई
प्रदूषित विषैली, ‘स्वाति-नखत-जल-धार’ |
‘प्रेम का चातक’ पी
इसे, है ‘मन का बीमार’ ||
‘संयम’ के ‘वन-मोर’ को, आने लगी है ‘आँच’ |
‘पंख’ उठा कर ‘मोरनी, रति की’ रही है नाच ||
‘यौन की कामी क्रान्ति’ से, ‘बागी’ हुआ ‘अनंग’ |
‘दाँव-पेच’ से कट
रही, ‘मर्यादा की पतंग’ ||१||
सोई सोई ‘काम’
की, रही ‘कामना’
जाग |
जैसे ‘घन के नीर’ में,
लगी ‘तड़ित की आग’ ||
‘वडवाग्नि की वासना’, जली, हुआ, यह
हाल’ |
‘इच्छाओं की झील’
में, आने लगा
‘उबाल’ ||
‘ललनायें’
हैं निर्वसन, हुये
देख हम दंग |
‘दाँव-पेच’ से कट
रही, ‘मर्यादा की पतंग’ ||२||
‘बदलावों
की आँधियों’, से
आया ‘पतझार’ |
‘वस्त्रों के
पत्ते’ झरे, हुई ‘नग्न’
‘कचनार’ ||
‘वसन’
पहनना तो हुआ,
है देखो बेकार |
‘नज़र चुरा कर’
देखता, है ‘यौवन सुकुमार’ ||
उभरे
‘यौवन-चाप’ सब, वसन
हुये यों तंग |
‘दाँव-पेच’ से कट
रही, ‘मर्यादा की पतंग’ ||३||
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प्रियादरणीय मित्र जन,
कल से इस ब्लॉग में नित्य एक रचना इस संकलन में प्रबंधित तथा अप्रबन्धित एक रचना एक एक दिन छोड़ कर 'प्रसून', 'गज़ल-कुञ्ज'और 'शंख-नाद' आदि ब्लॉगों में प्रकाशित करने का प्रयास रहेगा | ये रचनाएँ सम- सामयिक होंगीं |
आपकी यह प्रस्तुति कल के चर्चा मंच पर है
जवाब देंहटाएंकृपया पधारें
charchamanch.blogspot.in/
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंशुभकामनायें आदरणीय ||
आज का सत्य कहा है
जवाब देंहटाएंसत्य ....बेहतरीन प्रस्तुति !!
जवाब देंहटाएंपधारें बेटियाँ ...
katu satya ....
जवाब देंहटाएंआपका विश्लेषण अति उत्तम है आज का सच
जवाब देंहटाएंlatest post"मेरे विचार मेरी अनुभूति " ब्लॉग की वर्षगांठ