(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
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देखो ‘भारत की
धरा’, रोई हो लाचार
!
‘नाश’ को
रोको बन्द कर, ‘शोषण का बाज़ार’ ||
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‘मोटे अजगर’ की
तरह, बैठे ‘माँ
के लाल’ |
‘मेहनत के धन’ से अधिक, छकें
‘मुफ़्त का माल’ ||
‘छोटे नेता’ बड़ों
से, सीखें ‘चाल-फरेब’ |
‘भोली जनता’ ठग रहे, भरते ‘अपनी
जेब’ ||
‘राष्ट्र
वाद की बीन’ के व्शिथिल हुये हैं ‘तार’ |
‘नाश’ को
रोको बन्द कर, ‘शोषण का बाज़ार’ ||१||
बिना ‘सिफारिश-घूस’ के, कठिन हुये
व्यवसाय |
‘वेतन’ से
भारी बहुत, ‘नम्बर दो की आय’ ||
‘लकड़ी-पत्थर-रेत’ को,
खाकर हुये ‘निहाल’ |
‘लोहा-डीज़ल-शकर’ सब, लिये
‘पेट’ में डाल ||
‘मीठा-कड़वा-किरकिरा’,
खा कर ली न डकार |
‘नाश’ को
रोको बन्द कर, ‘शोषण का बाज़ार’ ||२||
‘शक्ति-उपासक’
हैं कई, ज्यों ‘उपवन में शूल’ |
धमका कर ‘चन्दा’ तथा, ‘हफ़्ता’ रहे वसूल ||
टैक्स चुराने
में निपुण, बने हैं कई ‘कुबेर’ |
‘लक्ष्मी-वाहन’ कर
रहे, हैं कितना ‘अन्धेर’ ||
केवल ‘धन’
ही पूजते, भूल ‘ज्ञान का सार’ |
‘नाश’ को
रोको बन्द कर, ‘शोषण का बाज़ार’ ||३||
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सुन्दर
जवाब देंहटाएंआदरणीय ||
बहुत सुन्दर सामयिक रचना
जवाब देंहटाएंLATEST POSTसपना और तुम