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सोमवार, 8 अप्रैल 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य)) (च) जोंक(३)लक्कड हज़म-पत्थर हज़म |


(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)


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देखो  ‘भारत  की  धरा’, रोई  हो  लाचार !
‘नाश’ को रोको बन्द कर, ‘शोषण का बाज़ार’ ||

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‘मोटे  अजगर’  की  तरह,  बैठे  ‘माँ  के  लाल’ |
‘मेहनत के धन’ से अधिक, छकें ‘मुफ़्त का माल’ ||
‘छोटे  नेता’ बड़ों  से,  सीखें  ‘चाल-फरेब’ |
‘भोली जनता’ ठग रहे, भरते  ‘अपनी  जेब’ ||
‘राष्ट्र वाद की बीन’ के व्शिथिल हुये हैं ‘तार’ |
‘नाश’ को रोको बन्द कर, ‘शोषण का बाज़ार’ ||१||



बिना ‘सिफारिश-घूस’ के, कठिन हुये व्यवसाय |
‘वेतन’  से  भारी बहुत, ‘नम्बर दो की आय’ ||
‘लकड़ी-पत्थर-रेत’  को,  खाकर  हुये ‘निहाल’ |
‘लोहा-डीज़ल-शकर’  सब, लिये  ‘पेट’ में डाल ||
‘मीठा-कड़वा-किरकिरा’, खा कर ली न डकार |
‘नाश’ को रोको बन्द कर, ‘शोषण का बाज़ार’ ||२||

‘शक्ति-उपासक’ हैं कई, ज्यों ‘उपवन में शूल’ |
धमका कर  ‘चन्दा’  तथा, ‘हफ़्ता’ रहे वसूल ||
टैक्स  चुराने  में  निपुण,  बने हैं कई ‘कुबेर’ |
‘लक्ष्मी-वाहन’  कर  रहे,  हैं  कितना ‘अन्धेर’ ||
केवल  ‘धन’  ही  पूजते,  भूल ‘ज्ञान का सार’ |
‘नाश’ को रोको बन्द कर, ‘शोषण का बाज़ार’ ||३||


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2 टिप्‍पणियां:

About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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