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सर्ग-२
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(विवेकानन्द-महिमा)
(द्वितीय अन्विति)
(द्वितीय अन्विति)
‘सामाजिक भावना’ हृदय से उन्मूलित हो क्षीण हुई |
‘शक्ति विचारों की’ हर मन में ‘श्री-आभा’ से हीन हुई ||
बिना ‘आस्था’, ‘भक्ति-भावाना’, जैसे जल बिन मीन हुई |
फलत:, भारत देश की जनता, दुखी, आर्त औ दीन हुई ||
संयम, शान्ति, सुनीति, प्रीति, श्रद्धा अँगुलियों वाले कर-
लेकर दुखते ‘मानव-मन’ को वे सहलाने आये थे ||
‘ढारस’ दे कर जन जन का चित, वे बहलाने आये थे |
और ‘सान्त्वना’ के ‘मरहम’ का लेप लगाने आये थे ||
यों हर ‘व्रीडा’ की ‘पीड़ा’ को, दूर भगाने आये थे |
वीर विवेकानन्द जगत में ‘ज्योति’ जगाने आये थे ||४||
‘कर्म-हीनता’ के चंगुल में अकडे जकड़े फँसे हुये |
‘काम, क्रोध,मद, लोभ,मोह की अँगुलियों में कसे हुये ||
उड़ न सकेंगे ‘मुक्त गगन’ में, ‘भाव’ हृदय में बसे हुये |
‘दुर्विचार’ नैराश्य-भाव के, ‘अन्तस्तल’ में गसे हुये ||
‘युग-पक्षी’ के ‘ज्ञान-कर्म’ के ‘दोनों पंख’ गिरे कट कर-
‘क्रूर काल’ के ‘कुटिल व्याध’ से उसे छुडाने आये थे ||
‘श्रेय-प्रेय’ के पंख लगा कर- उसे उड़ाने आये थे |
‘चरैवेति बस चरैवेति’ का पाठ पढाने आये यहे ||
‘श्रेष्ठ हो जो उसे विकासों’ मन्त्र सिखाने आये थे |
वीर विवेकानन्द जगत में ‘ज्योति’ जगाने आये थे ||५||
भय से व्याकुल सहमा सहमा, अपना भारत निखिल हुआ |
दबी हुई ‘अभिव्यक्ति’ मूक हो गयी, इस तरह विकल हुआ ||
‘अपने मन की’ कह सकने के, हर प्रयास में विफल हुआ |
‘रूप-शब्द’ का ‘शाश्वत बन्धन’, तार तार हो शिथिल हुआ ||
‘ओम् भूर्भुव: स्व: तप: जन और सत्य’ के सातों स्वर-
सब के मन की ‘नीरवता’ में यहाँ सजाने आये थे ||
या कि ‘अलौकिक सरगम वाली बीन बजाने आये थे |
या ‘साहस का निर्भयता का शंख’ बजाने आये थे ||
कापुरुषों को ‘वीरोचित नव नीति’ सुझाने आये थे |
वीर विवेकानन्द जगत में ‘ज्योति’ जगाने आये थे ||६||
बिना कर्म के ‘फल की चाहत’, ‘काँटों की विष बेलि’ बनी |
‘अमर बेलि, आकाश वल्लरी’ जैसी मन पर हुई घनी ||
‘सत् का मधुरस’ चूस चूस कर, व्यह पनपी थी बनी ठनी |
ग्रसित, ‘कलह’ के दारुण दुःख से, व्याकुल थी सारी अवनी ||
इस ‘धरती-उद्यान अखिल’ का, ‘प्रेम-सुरस’ से सिंचन कर-
गीता के ‘निष्काम कर्म’ का बोध कराने आये थे||
‘भेद-हीन मानवीय धर्म’ का शोध कराने आये थे |
‘भटके को पथ बतलाने की’ रीति निभाने आये थे ||
हमें श्रेष्ठ ‘सत्कर्म-साधना-पन्थ’ बताने आये थे |
वीर विवेकानन्द जगत में ‘ज्योति’ जगाने आये थे ||७||
‘मन-सरवर’ में ‘कमल प्रेम के’, निराभ हो कर मुरझाये |
‘घृणा वैर’ के, ‘वैमनस्य’ के, ‘झाड़ घिनौने’ उग आये ||
‘नीर-आचरण’ में ‘कुभाव’ कुछ, ‘जलकुम्भी’ से छितराये |
मन के बाहर, ‘विकार लोलुप’, ‘काई’ जैसे उतराये ||
‘अटल इरादे की कुदाल’ से, जिसकी ‘तीखी धार’ प्रखर-
‘स्वामी जी’, ‘आचरण-क्यारियाँ, पुन: निराने आये थे ||
‘कलह-द्वन्द’ की, ‘अडिग हठी दीवार’ गिराने आये थे |
‘मन के विमल नीर’ में, ‘नीरज-प्रेम’ खिलाने आये थे ||
विमुख हुये जो उन ‘हृदयों’ से ‘ह्रदय’ मिलाने आये थे |
वीर विवेकानन्द जगत में ‘ज्योति’ जगाने आये थे ||८||
(क्रमश:)
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