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शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2012

मुकुर(यथार्थवादी त्रिगुणात्मक मुक्तक काव्य) (क) वन्दना(४) राष्ट्र-वन्दना (ऐसा भारत सिर माथे !)


ऐसा भारत सिर माथे !
 
  
      (कीर्तन-गीत)
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  ऐसा भारत सिर माथे !
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मिट्टी सोंधी,वायु चन्दनी,हर हरियाली नन्दन-वन |

ऐसा भारत सिर माथे,उस भारत को अभिनन्दन ||


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धरती देती जहाँ अन्न-धन |
सागर देता जहाँ सजल घन |
पीड़ा सदा देख औरों की-
द्रवित सदा रहता था जन-मन ||


जिसके ‘हृदयस्थल’ से था,दूर सदा रहता ‘क्रन्दन’ ||
ऐसा भारत सिर माथे,उस भारत को अभिनन्दन ||१||


जहाँ ‘ह्रदय’ में ‘शान्ति’ ‘रमी’ हो |

‘बाहों’ में ‘तलवार’ थमी हो ||

‘धर्म-युद्ध’ का ‘महा प्रणेता’-

जहाँ ‘त्याग से सिंची’ ज़मीं हो ||



जिसकी विस्तृत काया का,कभी न हो सका था खण्डन ||

ऐसा भारत सिर माथे,उस भारत को अभिनन्दन ||२||

            
विद्या,कला,बुद्धि का देश |

‘गर्वोन्नत’ जिसका ‘परिवेश’||

 जिसका ‘आँचल’ ‘हरा भरा’ है ||

सजे ‘सुमन’ से जिसके केश ||

जिसके ‘गौरव-गीत’ गा रहे, ‘पक्षी, भ्रमरों के गुंजन’ ||

ऐसा भारत सिर माथे,उस भारत को अभिनन्दन ||३||


‘मन्त्रों के उच्चार’ जहाँ थे |

भरे ‘सकल भण्डार’ जहाँ थे ||

अपना ‘सब कुछ’ ‘जन्म-भूमि’ पर-

देते हँस,जन वार जहाँ थे ||

‘वसुधा पूरी’ ‘अपना घर’ है, ऐसा था जिसका ‘चिंतन’ ||

ऐसा भारत सिर माथे,उस भारत को अभिनन्दन ||४||


कहीं न ‘रुकने वाला’ भारत |

कभी न ‘थकने वाला’ भारत ||

‘कठिनाई’’कठोर’ कितनी हो-

कभी न ‘झुकने वाला’ भारत ||

‘आन बचाने’,‘मान बचाने’,किया ‘मृत्यु’से ‘आलिंगन’ ||

ऐसा भारत सिर माथे,उस भारत को अभिनन्दन ||५||


पड़े ‘बुद्धि’ पर अब क्यों ‘पत्थर’ ?

‘फटी’ ‘एकता’ की क्यों ‘चादर’ ??

‘अपनी गरिमा’ अखण्डता’ थी-

हमने इसका किया ‘निरादर’ ||

जिसका ‘मूल धर्म’ ‘मानवता’,सदा रहा है ‘निर्बन्धन’ |

ऐसा भारत सिर माथे,उस भारत को अभिनन्दन ||६||


 

‘मचा रहे’ हम क्यों ‘हुड़दंगा’ ?

हुआ ‘स्वत्व’ कितना ‘अधनंगा’ !!

देख ‘दशा अपने भारत की’-

‘काँप रहा है’ हाय ‘तिरंगा’ !!

जो ‘अपने पुत्रों’ की ‘दुर्मति’ पर करता ‘दुःख-स्पंदन’ ||

ऐसा भारत सिर माथे,उस भारत को अभिनन्दन ||७||



जिसके ‘पन्च तत्व’ से ‘यह तन |

बना है,वह अपना है वतन ||

है जिसका ‘आभार असीमित’-

जिसके लिये ‘सभी कुछ’ अर्पन ||

जिसने किया कोटि ‘वीरों,विद्वानों’ का’ सगर्व ‘प्रजनन’ ||

ऐसा भारत सिर माथे,उस भारत को अभिनन्दन ||८||


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2 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर प्रवाह | गहरे भाव ||
    शुभकामनायें ||

    जवाब देंहटाएं
  2. इसी बहाने मीत से, हो जाती है बात |
    खिल जाते हैं 'हृदय के पोखर,में 'जलजात' ||
    'पोखर में जलजात''हास की छटा'बिखेरें |
    'स्मृतियों के हंस' उन्हें आ कर के घेरें ||
    हैं कितने बड़भाग,ये रिश्ते मिले सुहाने |
    मिल जातीं "प्रसून"को खुशियाँ इसी बहाने ||

    जवाब देंहटाएं

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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