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सोमवार, 16 अप्रैल 2012

छल की गागर


छल की गागर
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छल की गागर छलकी रे |
हवा चली जहरीली
हल्की हल्की रे ||
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
कपट हाथमें विनाश ढपली |
बजा रही है तृष्णा पगली ||
मिटा 'आज' को,चिन्ता करती -
देखो कितनी 'कल' की रे ||
छल की गागर छलकी रे ||१||


अरे ततैया सुन्दर लगती |
नस में डसे तो आग सुलगती ||
धोखा नजर न खाए देखो-
खबर रखो पल-पल की रे ||
छल की गागर छलकी रे ||२||


उर के सारे भाव खोलकर |
मन के मोती सब टटोल कर ||
भेद खोलतींचुपके चुपके -
नयन से बूँदें ढलकी रे ||
छल की गागर छलकी रे ||३||
'रात' रोशनी निगल चुकी है |
लिये कालिमा निकल चुकी है||
इन जलते बुझते तारों की -
चमक दिखती झलकी रे ||
छल की गागर छलकी रे||४||



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About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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