Blogger द्वारा संचालित.

Followers

शनिवार, 27 सितंबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (12) दिगम्बरा रति (क) कामुकता-बीज

(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

यौन-क्रान्तिकी आड़ में, हुई नग्न तहज़ीब’ |

हम हैरत में पड़ गये, लगता बहुत ‘अजीब’ ||

कलियाँकई ‘’गुलाब’ की, ‘पंखुरियोंसे तंग |

हैं दिखलाती चाव से, खुले अधखुले ‘अंग’ ||

विज्ञापन के बहाने, अपने वसनउतार |

सुन्दर-सुन्दर ‘रूप’ काकरती हैं व्यापार’ ||

इन्हें देख इंसानियत’, की डोली है नींव’  |

हम हैरत में पड़ गये, लगता बहुत ‘अजीब’ ||||


‘लम्पट’ लोगों के लिये, हैं ये दृश्य’ ‘अजीज़’ |

किन्तु लड़कपनमें उगे, ‘कामुकता’ के ‘बीज’ ||

तरूणों के मन’  में  छुपी, गयी वासनाजाग |

कुछ सोई ‘चिनगारियाँ’, भड़कीं बन कर आग’ ||

सदाचार को चाटती, ‘अनाचार’ की ‘जीभ’ |

हम हैरत में पड़ गये, लगता बहुत ‘अजीब’ ||||


बालक- तरुण-किशोर सब, ढूढ़ें काम-कु-भोग’ |

नन्हें भँवरे’, ‘कली के, चाह रहे संयोग’ ||

इच्छाओं के गगन’  में, ‘दुराचार के  गिद्ध’ |

भोली  किसी  कबूतरी’, के शिकारमें ‘सिद्ध’ ||

इस  पशुता’  से हम बचेंकरो कोई  तरकीब |

हम हैरत में पड़ गये, लगता बहुत ‘अजीब’ ||||

शुक्रवार, 26 सितंबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (11) स्वर्ण-कीट (घ) तिज़ोरी-दिल |

(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

भटक रहा बेघर हुआ, अरे सलोना प्यार’ |
हृदय तिज़ोरीहो गये, औ चाहव्यापार ||
घेर चुके हैं प्रीतिको , लोभी ‘अन्तर्द्वन्द’ |
जैसे मैनास्वर्ण के, पिंजरेमें हो बन्द ||
व्यवसायों’ के ‘जालमें फँसे नेह-सम्बन्ध’ |
रिश्तों’ की ‘गर्दनफँसी, पड़े स्वार्थ’ के ‘फन्द’ ||
चमक-दमकसे छिप गये, ‘नैसर्गिक व्यवहार’ |
हृदय तिज़ोरीहो गये, औ चाहत व्यापार’ ||||


वित्त्वाद के ‘पत्थरों’, की यों निष्ठुर ‘चोट’ |
कोमल ‘कोंपल प्रेम की’, पाने लगी ‘कचोट’ ||
क्यों पैसों की पोटली’, मन’ पर दी है लाद |
बोझतले दबने लगी, है प्रियतम’ की ‘याद’ ||
उफ़ ! ‘यन्त्रों के शोर’ में, दबी  भ्रमर-गुंजार’ |
हृदय तिज़ोरीहो गये, औ चाहत व्यापार’ ||||
चिन्तनको जकड़े हुये, ‘सोने’ की ‘जंजीर’ |
तथा पराये दर्द में, बहे न दृग’ से नीर ||
जज्वेठण्डे’ हो गये, ‘अपनेपनके आज |
मानो सिल्ली बर्फ़ की’, प्यार भरे ‘अन्दाज़’ ||
चलो  दिलोंमें  हम  करें, गरम जोश ‘बौछार!
हृदय तिज़ोरीहो गये, औ चाहत ‘व्यापार’ ||||





बुधवार, 24 सितंबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (11) स्वर्ण-कीट (ग) सुनहरी मकड़ियाँ |

(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

पैनी लोभ-दुधारकीपड़ी इस तरह ‘मार’ |
भावुकताघायल हुई, ‘प्रेममें पड़ी दरार’ ||
‘वित्त्वाद’ की ‘मकड़ियाँ’, मन में ली हैं पाल |
चुपके चुपके बुन रही, हैं लालच के जाल’ ||
जज्वोंसे सूने हुये, ‘दिल बन गये मशीन’ |
रूखे-नीरस हो गये, सभी भाव रंगीन ||
स्नेह के कमलोंपर पड़ी, ‘तेज़ाबी बौछार’ |
भावुकताघायल हुई, ‘प्रेममें पड़ी दरार’ ||||
‘दुखी’ और भी दुखी हैं, शोषित हो कंगाल |
खाते रूखी रोटियाँ’, बिन सब्जीबिन दाल’ ||
कई लुटेरेलूटते, उड़ा रहे तर माल’ |
ऊपर से ओढ़े हुये, ‘राजनीति की खाल’ ||
जमा खोरियोंके कई, गरम हुये बाज़ार’ |
भावुकताघायल हुई, ‘प्रेममें पड़ी दरार’ ||||


धनिकों-निर्धन में हुआ, है खाई’ सा ‘भेद’ |
मिट्टी से सस्ता हुआ, है श्रीमिकों का ‘स्वेद’ ||
समता की कचनारपर, ‘हिमका हुआ ‘निपात’ |
और  एकता-बेलिपर, ‘ओलों’ का ‘आघात’ ||
जनता यदि न सचेत  हो, है बेबस ‘सरकार’ |
भावुकताघायल हुई, ‘प्रेममें पड़ी दरार’ ||||


About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

मेरे सभी ब्लोग्ज-

प्रसून

साहित्य प्रसून

गज़ल कुञ्ज

ज्वालामुखी

जलजला


  © Blogger template Shush by Ourblogtemplates.com 2009

Back to TOP