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बुधवार, 10 अप्रैल 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (छ) ‘भट्टी-भ्रष्टाचार’ (२)काँटों की बाड़ |




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जानें  कितनी बार है, बदल  चुकी  सरकार |
ज्यों के त्यों ज़िन्दा अभी, ‘जलते भ्रष्टाचार ||


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‘राजनीति के खेल’ में, पनपा है ‘छल’ आज |
जनता ‘चिड़िया’ बन गयी, नेता हैं कुछ ‘बाज’ ||
‘भ्रष्ट तन्त्र’ को दे दिया, ‘प्रजातन्त्र’ का नाम |
इस  ‘काँटों की बाड़’  ने,  चुभते  दिये ‘इनाम’ ||
मिले ‘राज्य’ से बीच में, छीन जाते अधिकार |
ज्यों के त्यों ज़िन्दा अभी, ‘जलते भ्रष्टाचार ||१||


कुछ  पैसों  के  लिये  हम,  बेच  रहे ‘ईमान’ |
‘राष्ट्र-भक्ति’ के नाम पर,  देते  हैं ‘व्याख्यान ||
चतुराई  से  भर  रहे, अपने  घर  में  ‘कैश’ |
‘जनता के श्रम’  से  अरे,  लूट र हे वे ‘ऐश’ ||
‘वित्तवाद के रोग’ से,  हुये  हैं  हम ‘बीमार’ |
ज्यों के त्यों ज़िन्दा अभी, ‘जलते भ्रष्टाचार ||२||

 
लोभ  हुआ ‘ख्ब्बीस’ सा,  तृष्णा ‘निठुर चुड़ैल’ |
दोनों  मिल  कर  खेलते,  ‘नाश-कबड्डी-खेल ||
इस  से  उपजे ‘कमीशन-घूस औ कुटिल दहेज़’ |
जिन  के  ‘दंश’  से  देश का,  सीना  है लवरेज़ ||
है  ‘धरती पर भार’  सा,  इन  का  हर  व्यहवार |
ज्यों  के  त्यों  ज़िन्दा  अभी, ‘जलते भ्रष्टाचार ||३||


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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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