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मंगलवार, 19 मार्च 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य (घ) दहशत (१)खूनी पंजे पैने दाँत |



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जैसे   ‘पंछी’  कोई   पकड़े   आ कर  बाज |
‘मज़लूमों’ पर पकड़ है, ‘ज़ुल्म’ की ऐसी आज ||
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‘स्यार’, ‘भेड़िया’, ‘लोमड़ी’, का लाख कर आक्रोश |
डरे  डरे   सहमे   हुये,  हैं   भोले   ‘खरगोश’ ||
‘अपराधों  के  गिद्ध’  हैं,   उड़ते   चारों   ओर |
‘समाज-वन’ में किस  तरह,  नाचें ‘प्रेम के मोर’ ||
चाह   रहीँ  ‘खूंरेजियाँ’,  करना   अपना राज |
‘मज़लूमों’ पर पकड़ है, ‘ज़ुल्म’ की ऐसी आज ||१||




‘आचरणों की  ‘मछलियों’ का अति बुरा है हाल |
पड़ा हुआ उन पर निठुर, ‘वित्त-वाद’ का जाल ||
‘जमाखोरियों’   के  हुये,  ‘अजगर  जैसे  पेट’ |
‘हकों’  के  कितने ‘मेमने’, चढ़े हैं इन की भेंट ||
आज तलक भी ‘वक्त’ का बदला नहीं मिजाज़ |
‘मज़लूमों’ पर पकड़ है, ‘ज़ुल्म’ की ऐसी आज ||२||



रोको  ‘जलती  ईर्ष्या’,  उगल  रही  है  ‘ताप’ !
मत उगलो अब ‘द्वेष’ का, ‘आँच भरा सन्ताप’ !!
‘दावानल’ सी जल रही, ‘घृणा की भीषण आग’ |
करके  यत्न  संवारिये,  ‘सुमनों  के अनुराग’ !!
‘अमन’ चला मुहँ मोड़ कर, दो उस को आवाज़ |
‘मज़लूमों’ पर पकड़ है, ‘ज़ुल्म’ की ऐसी आज ||३||





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3 टिप्‍पणियां:

  1. .बहुत सुन्दर भावनात्मक प्रस्तुति .एक एक बात सही कही है आपने . आभार हाय रे .!..मोदी का दिमाग ................... .महिलाओं के लिए एक नयी सौगात आज ही जुड़ें WOMAN ABOUT MAN

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  2. बहुत ही सार्थक प्रस्तुति,आभार.

    जवाब देंहटाएं

About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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