‘पवन’ चली ‘डाली’ हिली, झर गये ‘पीले
पात’ |
‘मधुवन’ में ऐसा हुआ, ‘मौसम का उत्पात’
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‘बीते युग’ की बात है, ‘बसन्त’ का
इतिहास |
‘पतझर’ आया ‘बाग’ में, रूठ गया ‘मधुमास’
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यह विकास है सुभग ज्यों, ‘नागफनी का
फूल’ |
ऊपर ऊपर खुशनुमा, भीतर पैने शूल ||
‘कोहरे’ ने देखो किया, ‘धूमिल, मलिन प्रभात’
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‘मधुवन’ में ऐसा हुआ, ‘मौसम का उत्पात’
||१||
यों तो
चारो और हैं, महके हुये प्रसून |
पर इन के
मन में छुपा, चुभता हुआ ‘जुनून’ ||
इस ‘पश्चिमी विकास’ ने, दी है ऐसी चोट |
सम्बन्धों
में चुभ रही, लालच भरी कचोट ||
‘मानवता’ पर हो गया, है निर्मम आघात |
‘मधुवन’ में ऐसा हुआ, ‘मौसम का उत्पात’
||२||
पुरखों ने बोये जहाँ, ‘मीठे मीठे आम’ |
काट के हमने बो दिये, हैं ‘बबूल उद्दाम’ ||
पोर पोर में चुभ रहे, ‘अन्तर्मन’ को साल |
पीडाओं’ के उग रहे, जहाँ तहाँ ‘कंटाल’ ||
किस से जा
कर हम कहें, ‘अपने मन की बात’ |
‘मधुवन’ में ऐसा हुआ, ‘मौसम का उत्पात’
||३||
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बहुत ही सार्थक दोहे,आभार.
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