==================================
डूबती यह ‘नाव’ कैसे
‘पा सकेगी पार’ !
हो सकेगा किस तरह जन
जन का रे उद्धार !!
कौन किसकी ‘मलिनता’
को धो सकेगा आज ?
क्योंकि सब पर ‘कलुषता’
का चढ़ चुका है रंग |
आज के गणतन्त्र के हैं, ये निराले ढंग
||१||
‘घाव’ कितने कर चुके हैं ये ‘कँटीले वर्ष’ !
गिन लिये हैं उँगलियों पर, कई ‘मिथ्या हर्ष’ ||
‘विफलता’ की इस तरह कुछ, पड़ रही है ‘चोट’ |
दुःख रहे हैं ‘कामना’ के, ‘दर्द’ से ‘सब
अंग’ ||
आज के गणतन्त्र के हैं, ये निराले ढंग
||२||
प्यार ‘वाणी’ में, थमा है ‘हाथ’ में
‘अणुबम्ब’ |
‘हम लड़ेंगे’, ‘हम लड़ेंगे’ का है कितना
दम्भ !!
सुलगती लगती है, भीतर ‘ताप’ बाहर
‘शीत’-
छिड़ गयी है एक ‘शीतल आग वाली जंग’ |
आज के गणतन्त्र के हैं, ये निराले ढंग
||३||
‘राह’ में ‘काँटे’ सभी ने बो लिये हैं आज |
है ‘नुकीला और तीखा’, ‘आज’ का अन्दाज़’ ||
‘मन की धरती’ में उगे हैं, ‘कपट के कुछ बीज’-
सभी तो ‘छल-पन्थ-गामी’, चलें किसके
संग ?
आज के गणतन्त्र के हैं, ये निराले ढंग
||४||
================================
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें