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रविवार, 27 जनवरी 2013

(२)आज के गणतंत्र के ढंग | | (गणतन्त्र दिवस पर विशेष कटु सत्य प्रस्तुति)




 उलझनों में जी रहे हम हो चुके हैं तंग |
आज के गणतन्त्र के हैं, ये निराले ढंग || 

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डूबती यह ‘नाव’ कैसे ‘पा सकेगी पार’ !

हो सकेगा किस तरह जन जन का रे उद्धार !!

कौन किसकी ‘मलिनता’ को धो सकेगा आज ? 
क्योंकि सब पर ‘कलुषता’ का चढ़ चुका है रंग |     
आज के गणतन्त्र के हैं, ये निराले ढंग ||१||

 

‘घाव’ कितने कर चुके हैं ये ‘कँटीले वर्ष’ !

गिन लिये हैं उँगलियों पर, कई ‘मिथ्या हर्ष’ ||

‘विफलता’ की इस तरह कुछ, पड़ रही है ‘चोट’ |

दुःख रहे हैं ‘कामना’ के, ‘दर्द’ से ‘सब अंग’ ||

आज के गणतन्त्र के हैं, ये निराले ढंग ||२||

 

प्यार ‘वाणी’ में, थमा है ‘हाथ’ में ‘अणुबम्ब’ |

‘हम लड़ेंगे’, ‘हम लड़ेंगे’ का है कितना दम्भ !!

सुलगती लगती है, भीतर ‘ताप’ बाहर ‘शीत’-

छिड़ गयी है एक ‘शीतल आग वाली जंग’ |

आज के गणतन्त्र के हैं, ये निराले ढंग ||३||

 

‘राह’ में ‘काँटे’ सभी ने बो लिये हैं आज |

है ‘नुकीला और तीखा’, ‘आज’ का अन्दाज़’ ||

‘मन की धरती’ में उगे हैं, ‘कपट के कुछ बीज’-

सभी तो ‘छल-पन्थ-गामी’, चलें किसके संग ?

आज के गणतन्त्र के हैं, ये निराले ढंग ||४||

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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