कल गणेश चतुर्थी के पर्व पर भारतीय गण राज्य के तूफानी परिवर्तन की वेदना जब असह्य हो गयी तो एक पुराने गीत से भाव-व्यक्त करना उचित समझा |एक लंबा 'पद्धरी-गीत' दो भागों में प्रस्तुत है | लीजिये उसका प्रथम भाग !
(४)
राष्ट्र-वन्दना
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! मेरे भारत देश !
मेरे भारत देश तुम्हारा,रहा सदा इतिहास मनोहर!
‘मानवता’औ ‘सत्य-अहिंसा-प्रेम’,तुम्हारे रहे धरोहर ||
‘छल-प्रपञ्च औ प्रवन्चना’ से, सदा दूर तुम रहे अनोखे-
पर ‘आगन्तुक-अतिथि गणों’, ने दिये तुम्हें धोखे ही धोखे
||१||
तुमने दे कर शरण सभी को,’शरणागत की
आन’ निभाई |
यहाँ रहा जो भी,उसको थे
बाँटे,धन-साधन सुख दायी ||
‘भाषा सबकी,सब की संस्कृति’,तुम में
रही,फली औ फूली |
सब धर्मों का किया मान वह,बड़ा हो या
हो अति मामूली ||२||
राम,कृष्ण,गौतम,कनिष्क औ चन्द्रगुप्त
सब पले यहाँ पर |
अकबर,राणा,शिवा,जफ़र औ गाँधी,फूले
फले यहाँ पर ||
संकरित,हिन्दी,अरबी,उर्दू,अंग्रेज़ीसब
तुमने बोलीं |
कई रंग के तितली,भँवरों,और
पंछियों की हर टोली ||३||-
रही
तुम्हारी प्रीति-वाटिका में मिल जुल कर सदा प्यारसे |
फल खाये,या
पराग-मधु पी,सुख में बीते दिन दुलार से ||
किन्तु कई
ऐसे भी पनपे, जो थे भीषण अत्याचारी |
नादिर से,
चंगेज़खान से,‘मानवता’ के लिये ‘कटारी’ ||४||
‘छुरा तुम्हारी पीठ में घोंपा’,आम्भीक
ने,‘जय चन्दों’ ने |
वाजिदअली, मीरजाफ़र से सत्ता के लोभी
अन्धों ने ||
और फ़िरंगी गोरे बन्दर, मधुवन में जब
से घुस आये |
हाथ बढ़ा कर सुन्दर सुन्दर फूल और फल
तोड़े खाये ||५||
कुचल कुचल कर‘सुमन-क्यारियाँ’,रौंदीं,मलिन किया‘कुसुमाकर
|
‘शहद’और‘जीवनी-सुरस’ सब जमा किये बाहर ले जा कर ||
कसा ‘शिकंजा छल
का’, हाथों पाँवों में जन्जीरें कस दीं |
तुमको ‘दास’ बनाने की थीं ‘उलटी पुलटी चालें’ चल दीं ||६||
और
यहाँ की ‘संस्कृति’ पर थी ऐसी गँदली छाप लगा दी |
बदल
दिया ‘इतिहास’,’नाश की ढपली, पर यों थाप लगा दी ||
‘सत्ता-मद,खिताब
के जूठे-झूठे मान’ के भूखे ‘कूकर’ |
बाँधे‘सोने-चाँदी
की जंजीरों’में गोरों ने कास कर ||७||
‘आंगल-सत्ता
के चंगुल’ से, तुम्हें छुड़ाया ‘दीवानों’ने |
‘जज्वों
के मरहम’ से ‘सारे घाव’ भर दिये ‘मस्तानों’ ने ||
‘स्वतन्त्रता
की दीप-शिखा’ पर,प्राण हट दुए ‘परवानों ने ||
थक कर
‘छोड़ दिया’ भारत को ‘रक्त पी रहे हैवानों’ ने ||८||
मेरे
प्यारे वतन सुहाने! तब तुमने पाई आज़ादी !
किन्तु
‘तुम्हारी सन्तानों’ ने,’गरिमा की खेतियाँ’ जला दीं ||
‘स्वार्थ,घृणा
की आग’जला कर, ‘लोभ और तृष्णा-ईंधन’ में |
‘ज्ञान-प्रेम-धन’
छोड़ रमे हैं,अब ‘इनके ओछे मन’ धन में ||९||
(क्रमश:)
बहुत ही सुंदर !
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