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रविवार, 16 सितंबर 2012

हिन्दी–पखवाडा (हिन्दी भाषा- साहित्य के सम्मान में रचनाएँ (३) !! हिन्दी का पखबाड़ा है !!



  
    

बैनर लगे,प्रचार का परचम,हमने कस कर गाड़ा है |

आओ जश्न मनायें भैया,’हिन्दी का पखबाड़ा' है !!

‘भाषावादी’,’प्रान्तवादी’ पनपे पहले से ज्यादह-

‘देश-प्रेम’ को भूल रट लिया,’अँग्रेज़ी का पहाड़ा‘ है ||




 


 

‘गीता,गंगा,गायत्री,गौ’के रच ‘झूठे स्वाँग’ अरे-

‘भारतीय संस्कृति’ का हमने,’हर वट-वृक्ष’उखाड़ा है !!

‘पॉपसोंग’ औ ‘ब्रेकडांस’ के दीवाने हम ऐसे हैं –

मधुर मधुर तितली-भँवरों का हमने ‘बाग’उजाड़ा है ||




 



‘बगिया’में हैं घुसे ‘विदेशी पशु’,चरते आज़ादी से –

सीमाओं पर खतरा देखो, टूटा चौहद-बाड़ा है !!

‘प्रजा-तन्त्र की आड़’ में पनपी,’ सामन्ती तानाशाही-

रूप बदल कर अब भी शायद,ज़िंदा ‘हर रजबाड़ा’ है !!


 
    

पुत्र-पुत्रियाँ हैं उच्छ्रंखल’ उन्हें देख हम दुखी हैं क्यों-

सच पूछो तो, सचमुच भैया,हमने उन्हें बिगाड़ा है !!

ताल ठोक कर लड़ते हैं ये, देखो माइक-मंचों पर-

‘राजनीति के मल्लयुद्ध’ का ऐसा जमा अखाड़ा है ||

 




‘बिल्ली’ रचे ‘स्वयम्बर’ लड़ते हैं सारे ‘कामुक बिल्ले’

जिसका जिसका दाँव लग गया,‘उस’ ने‘उसे’पछाड़ा है ||

 


भइया हमको हैरानी है, अपने दोष न देखे हैं –

एक दूसरे पर हम सब ने,’कीचड़’ खूब उछाला है ||


कानों पर जूँ नहीं रेंगती, बहरे “प्रसून” आज हुये-

व्यर्थ है ‘थाप लगाना’ भाई, ‘टूटा हुआ नगाड़ा’ है ||  

 


 

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About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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