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बुधवार, 11 जुलाई 2012

शंख-नाद(एक ओज गुणीय काव्य)- (ब)आव्हान-(2) (काँटों में भी हँसो !)

 
दर्दों में भी प्रसन्नता का ओज बिखेरो !
काँटों में भी हँसो, सु- मन बन जग महकाओ !!



तर्क-जाल में फांस 'ज्ञान' को हना जिन्होंने |

अपने चारों ओर अँधेरा बुना जिन्होंने ||

मायावी 'दुर्ज्ञान'किया है घना जिन्होंने |

ये जुगनूँ हैं, चमक बहुत क्षण भंगुर इनकी |

बन कर सूरज इनका हर अस्तित्व मिटाओ!!

काँटों में भी हँसो, सु-मन बन जग महकाओ !!१!!

 

इनकी उठती उँगली की तुम चिन्ता छोड़ो |

इनकी थोथी,झूँठी बातों का भ्रम तोड़ो ||

बिखरी अपनी शक्ति स्वयं की जुटा के जोड़ो|

हिंसा वाली इनकी मैली बाँह मरोड़ो ||

इनके मन में घृणा-बेलि पनपी फूली है ||

प्रेम-रसायन से तुम उसकी मूल मिटाओ ||

काँटों में भी हँसो,सु-मन बन जग महकाओ !!२!!

   

क्या कर सकते हैं इनके हाथों के पत्थर ?

चेतो और करारा इनको दे दो उत्तर ||

इनके आरोपों को कर दो और निरुत्तर |

त्यागो इनकी अन्यायी ताक़त का अब डर ||

साहस करो, शिवा,राणा, अक़बरके वंशज |

ओ दशगुरु के पूत , कमर कस इन्हें मिटाओ !!३!!

   

अपने 'क्रान्ति-गीत' के गूँजे स्वर मत रोको |

निज प्रयास में रोड़ा बने उसे तुम टोको ||

'पाप' हिला दे उस भीषण आँधी के झोंको !

आग बनो, अत्याचारों की करकट फूँको !!

'वित्त वाद' 'सुख वाद'विलासों के कूड़े को -

एक ढेर पर रख कर फिर होलियाँ जलाओ ||

काँटों में भी हँसो, सु-मन बन जग महकाओ !!४!!  


 

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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