'बयान बाजी' से तंग' 'भंग व्यवस्था' से भटकी 'वास्तविकता' की 'पीड़ा' | 'वास्यविकता' मुहँ छिपा कर कहीं 'अज्ञात-वास' में है ! 'वनवास' में है ! उसे ढूँढ़ें !! 'देश की अस्मत' लुटी भी और मर भी गयी | 'कोमलता', 'कठोरता' में बदल गयी ! (सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
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(‘मुकुर’ में समन्वित एक ताज़ी सामयिक
रचना)
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देश दुखी है नेताओं के ‘घटिया-कुटिल’ बयानों से |
देश दुखी आये दिन होते, ‘नारी’ के अपमानों से ||
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जिनकी स्थिर बुद्धि नहीं है, ’कलुषित
मन’ के स्वामी हैं |
‘विलासिता’ की चिकनाहट के पथ’ के जो
‘अनुगामी’ हैं ||
इनके पाँ फिसल जाते हैं, ‘पतन-गर्त’ में
गिरते हैं-
‘धरती’ की जो ‘बात’ कर रहे, ‘ऊँचे उठे मकानों’ से ||
देश दुखी है नेताओं के ‘घटिया-कुटिल’ बयानों से |
देश दुखी आये दिन होते, ‘नारी’ के अपमानों से ||१||
‘भारत देश की जनता’
इतनी ‘भोली सीधी सादी’ क्यों ?
‘सावन के अन्धे
गदहों’ पर, ‘जिम्मेदारी’ लादी क्यों ??
यह कहते हैं,
‘बंजर-ऊसर धरती’ कहीं नहीं होगी-
‘मरुधर’ कोसों दूर रहेगा, ‘हरे भरे अरमानों’ से ||
देश दुखी है नेताओं के ‘घटिया-कुटिल’ बयानों से |
देश दुखी आये दिन होते, ‘नारी’ के अपमानों से ||२||
‘महँगाई’ इनकी ‘जेबों’ में, ‘भ्रष्टाचार’ है ‘झोली’ में |
बाँट रहे ‘जनता’ को ‘राशन’ डटे हुये ‘घटतोली’ में ||
‘करुणा’, ’उदार सोच’ नहीं है, ‘सेवा’ का है ‘भाव’ नहीं-
केवल ‘जमाखोरियाँ’ मिलतीं, इनकी ‘बड़ी दुकानों’ में ||
देश दुखी है नेताओं के ‘घटिया-कुटिल’ बयानों से |
देश दुखी आये दिन होते, ‘नारी’ के अपमानों से ||३||
“प्रसून” सारे मुरझाये हैं, इनकी ‘हविश’ की ‘गर्मी’ से |
‘कलियाँ’ ‘मुहँ’ को छुपा रहीं हैं, ‘कुदृष्टि की बेशर्मी’ से
||
‘कुवासना’ से जोड़ के ‘नाता’, लिपटे ‘विवसन रूप’ से हैं-
‘इनके होंठ’ रसीले केवल, ‘छलक रहे पैमानों’ से |
देश दुखी है नेताओं के ‘घटिया-कुटिल’ बयानों से |
देश दुखी आये दिन होते, ‘नारी’ के अपमानों से ||४||
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