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शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

शंख-नाद(एक ओज गुणीय काव्य(य) प्रयाण गीत (३) चल रे चल कांवरिया चल! ! (एक नयी सोच)


चल रे चल कांवरिया चल! ! (एक नयी सोच)



चल रे चल काँवरिया चल! 


चल रे शम्भु-नगरिया चल!!

!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
 

घावों से घवराया क्यों?

व्रत के पथ पर आया क्यों??

दुःख पाकर सुख पायेगा-

काँटों भरी डगरिया चल!!

चल रे चल काँवरिया चल !!१!!


दुःख को गले लगाना सीख !

बात की आन निभाना सीख !!

एक तू ही तो दुखी नहीं-

सब की दुखी उँगरिया चल !!

चल रे चल काँवरिया चल !!२!! 

 


अपनी आँखें पोंछ ले तू!

यह सच्चाई सोच ले तू !!

दर्दों के सैलावों में- 

डूबी अखिल नगरिया चल !!  

चल रे चल काँवरिया चल !!३!! 


अन्धकार व्यवहारों में |

डूबे सभी विकारों में ||


आचरणों के चन्दा पर- 

घिरी है मलिन बदरिया चल!


चल रे चल काँवरिया चल !!४!! 

 

कर अपने मन को मजबूत!

अपनी छिपी शक्ति को कूत!!

नाच न् असत् की उँगली पर- 

तू है नहीं पतुरिया चल !!

चल रे चल काँवरिया चल !!५!! 

 

मौन निराशा का तू तोड़ !

मत अपनों से मुहँ को मोड़!!

नफ़रत के इस जंगल में -

बजा के प्रीति बंसुरिया चल !!

चल रे चल काँवरिया चल !!६!! 

 

 

निज में अपना 'प्रियतम' खोज!

यह जीवन है 'उसका' ओज !!

रूह तेरी 'उस' की सजनी-

वह तेरा 'साँवरिया' चल!!

चल रे चल काँवरिया चल !!७!! 

 

यों तो जग में मीत अनेक |

पर निज हित जीता हर एक || 

अपने 'प्रियतम' कान्हां की-

बन प्रियतमा 'गुजरिया' चल!!

चल रे चल काँवरिया चल !!८!! 




समय के 'पंख' बहुत बलवान |

कभी न् रुकते हैं तू जान ||

"प्रसून" अब तू देर न् कर !

बीती जाये उमरिया चल !!

चल रे चल काँवरिया चल !!९!!  


 

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About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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