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मंगलवार, 7 अक्तूबर 2014

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (13) मानवीय पशुता (ख) कच्ची कलियाँ बावली !

 (सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार) 

सु-सभ्यता का रख लिया, असभ्यता ने नाम !

चम्पा-पादप में लगे, कनक-कु-फल उद्दाम !!

पंख उठा कर तितलियाँ, रहीँ  इस तरह नाच !

मर्यादायें   टूटतीं,   जैसे  च्चा  काँच !!

भ्रमरों की गुंजार कीजगह  कु-कर्कश राग !

तोते- मैना की जगहघुसे बागमें काग !!

ललित कलाओं की मिटी, सुखद शान्ति अभिराम !

चम्पा-पादप में लगे, कनक-कु-फल उद्दाम !!1!!

        

कच्ची कलियाँ  बावलीपंखुरियों  से  तंग !

स्वयं   दिखाना  चाहतींखुले-अधखुले अंग !!

वस्त्र  पहनने  के  हुयेअजब  निराले  ढंग !

देख  देख  कर  हम  हुये, हैं  हैरत  से  दंग !!

हमें  संस्कृति-प्रदूषण, का  यों  मिला इनाम !

चम्पा-पादप में लगे, कनक-कु-फल उद्दाम !!2!!

                           

टी.वी., सी.डी.,  वीडियोकी   घर-घर  भरमार !

नित्य  नग्नता  का  हुआजिनसे खूब प्रचार !!

जम कर  पी कर, कर नशा, आदत से मजबूर !

ब्लू फ़िल्मों को देख कर, शिशु बचपन से दूर !!

लाते  बाप  खरीद  करकमा कमा कर  दाम’ |

चम्पा-पादप में लगे, कनक-कु-फल उद्दाम !!3!!

                                          

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About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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