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शुक्रवार, 17 मई 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (ठ) आधा संसार | (नारी उत्पीडन के कारण) (२) दहेज़-दानव (i) खूनी पिशाच


सर्ग का  यह दूसरा उपसर्ग 'दहेज़' आप की सेवा में प्रस्तुत है | नारी उत्पीडन का यह रूप शायद कभी समाप्त न हो क्यों कि घूस की ही तरह ही यह भी आज कल की गुप्त(भूमि-गत) संस्कृति में रच बस गया है | यह ऐसा अपराध है जिसे करने वाले 
अपने कद के अनुपात में कर रहे हैं और मानते भी नहीं | इसे अपनी शान में शुमार करते हैं |बेटी के 'प्रेम-मोह' से विवश माता पिता अपनी बेटी की दुर्दशा कैसे देखें भला ? 
आये दिन असमर्थ माँ बाप की बेटियों  की दहेज़-ह्त्या या उस के प्रयास समाचार पढाने =सुनने को  मिल जाते हैं | ओस रचना में दहेज़ का पशाचिक वीभत्स एवं भयानक रूप सामने ररखा गया है |
(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
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उन्मादी हो कर रहा, ‘रक्त-पान’ कर नाच |
है ‘दहेज़ के लोभ’ से, मानव बना ‘पिशाच’ ||
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‘दहेज़-कंटक-पाश’  ने, लिया  है  ‘प्रेम’ लपेट |
भोली भाली  बेटियाँ,  चढ़ी  हैं  इसकी  भेंट ||
जला दिया, विष दे दिया, डाल गले  में फांस |
मार रहे ‘कुल-वधू’ को,जेठ, ससुर, पति, सास ||
‘मनुष्यता’  पर  आ रही,  देखो  ‘मैली आँच’ |
है ‘दहेज़ के लोभ’ से, मानव बना ‘पिशाच’ ||१||


‘वित्त्वाद के पत्थरों’,  की  पड़ती  यों  चोट |
कोमल  ‘कोंपल’ प्रेम की, पाने लगी कचोट ||
‘प्रीति की काया’ खुरचते, निठुर ‘लोभ-नाखून’ |
दोष-रहित ‘नारी-सु-तन’, का यों बहा  है खून ||
टूटी  बिखरी  ‘सभ्यता’,  जैसे  ‘कच्चा काँच’ |
है ‘दहेज़ के लोभ’ से, मानव बना ‘पिशाच’ ||२||


‘दहेज़-दानव’ वृहत् तन,  वृहत् जीभ औ दाँत |
खा कर  भी  भूखा रहा, भारी इस की ‘आँत’ ||
‘होंठ’  रक्त  से  लाल  हैं, पैनी  खूनी ‘दाढ़’ |
विवश नारियाँ  मारता,  पीता  ‘रक्त प्रगाढ़’ ||
 ‘प्रेम-ग्रन्थ’ तज  कर कुटिल, ‘घृणा-कु-पुस्तक’ जाँच |
है ‘दहेज़ के लोभ’ से, मानव बना ‘पिशाच’ ||३||
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1 टिप्पणी:

  1. आज सब के विचार एक है ...।
    व्यक्त करने वाले शब्द अलग-अलग
    लेकिन जिसके कारण कुछ फर्क पड़ सकता
    वो मरा पड़ा है
    और हम लाचार पड़े हैं
    देखते समय और क्या दिखाता है

    जवाब देंहटाएं

About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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