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सोमवार, 13 मई 2013

झरीं नीम की पत्तियाँ (दोहा-गीतों पर एक काव्य) (ठ) आधा संसार | (नारी उत्पीडन के कारण) (१) वासाना-कारा (७) रति-चोर |


आज 'मातृ-दिवस' के अवसर पर 'मात्र-शक्ति' को शुभ कामना ! सर्ग  की सातवीं इस रचना में च्रीछिपे  शराफत का चोला उतार फेंक कर भोली भूख से मज़बूर बालाओं किशोरियों को झूठ प्रेम-जाल में फां कर  विवाह का झांसा दे कर बर्वाद करने वाले नराधमों की और संकेत है |
(सारे चित्र 'गूगल-खोज'से साभार)
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बेच रहीं ‘तन’ नारियाँ, भूखी नक़द-उधार |
घिरा ‘अभावों’ से बहुत, है ‘आधा संसार’ ||
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‘कंगालों  की  बस्तियों’,  में   जाते   हैं  नित्य |
‘कारूँ-कुबेर-कु-सुत कुछ’,  करते  ‘कलुष  कु-कृत्य’ ||
‘रातों’   में    यों   घूमते,   जैसे   कोई  ‘चोर’ |
ढूँढ   ‘कुमारी  छोरियाँ’,   ये  ‘मन चले  किशोर’ ||
खरीद   कर  ‘मज़बूर तन’,  शान्त  करते  ‘ज्वार’ |
घिरा  ‘अभावों’  से  बहुत,  है  ‘आधा  संसार’ ||१||


और  कई   तो  ‘काइयाँ’,  ‘जालसाज़  ठग - धूत’ |
‘जाल’  बिछ  कर  ‘प्रेम’  का,  ‘धवानों  के  पूत’ ||
‘मीठे मीठे वचन’   कह,  बुला   के  अपने  पास |
दिखा  ‘प्रीति का स्वप्न-सुख’,  ‘बालाओं’ को फांस ||
कहते   प्यारी  हम  तुम्हें,  देंगे  ‘मन  का प्यार’ |
घिरा  ‘अभावों’  से  बहुत,  है  ‘आधा  संसार’ ||२||


कई दिनों  तक  खेलते,  ‘कुटिल’  ‘काम की केलि’ |
होंती है  जब  ‘फल - वती’,  ‘कौमार्य  की  बेलि’ ||
तब  ये  ‘पामर’  ‘रूपसी’,  से   लेते  मुहँ  मोड़  |
‘दीन दशा’  में  कलपती,   देते   उस को  छोड़  ||



पछताती   ‘मँझधार’   में,    बेचारी    ‘लाचार’  |
घिरा  ‘अभावों’  से  बहुत,  है  ‘आधा  संसार’ ||३||

 

ब्लॉग-'प्रसून' में मात्री-दिवस पर विशेष प्रस्तुति 

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1 टिप्पणी:

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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