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गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

ज़लजला (ग) पाप की लहरें |(१) टूटी ‘सन्तुलन-कीली’ |


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(दिल्ली-‘यौन-हिंसा’-दिसम्बर-२०१२ पर विशेष)
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‘धरती’ हिलने लगी है, टूटी ‘सन्तुलन-कीली’|
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आपस में करते हैं दंगे |
उड़ा रहे हैं इन्हें ‘लफंगे’ ||
‘दाँव-पेंच’ कितने ‘शैतानी’ !
अनियंत्रित हो गयीं ‘पतंगें ||
‘अनुशासन की डोरी हो गयी-है कितनी ढीली ||
‘धरती’ हिलने लगी है, टूटी ‘सन्तुलन-कीली’ ||१||



‘तोड़-फोड़’ औ ‘आगजनी’ से |
जले जा रहे सभी ‘दरीचे’ ||
‘प्रेम’ के हरे भरे थे सुन्दर-
‘पुरखों ने ‘मेहनत’ से सींचे ||
‘भारत माँ की गर्दन’ झुक गयी, हो कर ‘शर्मीली’ ||
‘धरती’ हिलने लगी है, टूटी ‘सन्तुलन-कीली’ ||२||


आज मचलने लगी है देखो !
‘आग’ उगलने लगी है देखो !!
पाकर ‘रगड़’ तोड़ दी ‘चुप्पी’-
‘धूधू’ जलने लगी है देखो !!
करवट बदल के ‘बागी’ हो गयी, ‘माचिश’ की तीली||
‘धरती’ हिलने लगी है, टूटी ‘सन्तुलन-कीली’ ||३||


‘”प्रसून” जल गये, ’कलियाँ’ झुलसीं |
 ‘सारी बगिया’ हुई विकल सी ||
 ‘हिंसा’ ‘शान्ति-वन्’ में पनपी-
 कितनी भीषण ‘दावानल’ सी ||
‘अमन की देवी’ कितना रोई, ‘आँखें’ हैं गीली ||
‘धरती’ हिलने लगी है, टूटी ‘सन्तुलन-कीली’ ||४||


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2 टिप्‍पणियां:

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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