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सोमवार, 10 सितंबर 2012

ज्वालामुखी (एक गरम जोश काव्य) (ख) आग का खेल (२) !!धधक रहा‘संसार’अरे !!








!! झुलस रहे हैं ‘अवनी-अम्बर’-

   
   धधक रहा‘संसार’अरे !!
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घूम रही गलियों में देखो,’काम-दग्ध रति’’पागल है !
हटो !बचो ! दस लेगी ‘नागिन’ आवारा है ,घायल है !!
‘मानवता’ को डसने निकली,केंचुल-वसन’ उतार अरे !!
झुलसरहेहैं ‘अवनी-अम्बर’-धधक रहा‘संसार’अरे !!१!!

 

आज ‘महा शिव’ का तप देखो,करने भंग,’अनंग’ चला !
‘यौन-क्रान्ति’का अटल इरादा,’पुष्पायुध’ ले संग चला ||
‘मन की खेती’ में बोये हैं,’नियति’ ने आज ‘अंगार’ अरे !!
झुलसरहेहैं ‘अवनी-अम्बर’-धधक रहा‘संसार’अरे !!२!!

 

‘फैशन के कुछ पवन-झकोरे’,’उद्दीपन’ भड़काते हैं |
‘नयी उम्र की नयी फसल’को,शनैः शनैः ‘सुलगाते हैं’||
इस ‘बेढंगे परिवर्तन’ ने जला किया ‘मन’ क्षार अरे !!
झुलसरहेहैं ‘अवनी-अम्बर’-धधक रहा‘संसार’अरे !!३!!

 

‘तन की गोरी,मन की काली’,आज ‘वासना’ दोल रही |
‘आकर्षक विष-बुझी कटारी’,और ‘म्यान’से खोल रही ||
‘अंधी’ हो कर घुमा रही है,’राहों में ‘तलवार’ अरे !!
झुलसरहेहैं ‘अवनी-अम्बर’-धधक रहा‘संसार’अरे !!४!!
 

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साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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