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गुरुवार, 20 सितंबर 2012

शंख-नाद(एक ओज गुणीय काव्य)-(र)-चलो बचाएं देश को !! (रूपक-गीत) (२) समाधान (!! आओ बचा लें देश को !!)



सारे चित्र मूल चित्रकारों को सधन्यवाद 'गूगल-खोज' से साभार उद्धृत -



!! आओ 
  
   बचा   

 लें देश को !!

!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!


आओ बचा लें देश को !

================

‘धरती की दुर्दम प्यास’ ने |

‘सत्ता मिले’ इस आस ने ||

‘हर एकता’ को छल लिया-

‘बिखरे हुये विशवास’ने ||

मत-भेद इतने बढ़ गये-

‘दल-दल’ में यह फँसने लगा |

आओ निकालें देश को !

आओ बचा लें देश को !!१!!


 




हर सुख बढ़ा,राहत बढ़ी |

फिर और भी चाहत बढ़ी ||

‘पथ’बहुत ‘चिकने’ हो गये –

‘सुविधा की चिकनाहट’ बढ़ी ||

गति दे गयी हम को दगा-

यह लडखडा गिरने लगा |

आओ सँभालें देश को !

आओ बचा लें देश को !!२!!


  



‘निष्ठा’ पर हुये ‘प्रहार ने |

‘लालच के कुटिल कुठार’ ने ||

तोड़ा है कैसा संगठन !

देखो तो ‘भ्रष्टाचार’ ने !!

इस ‘प्रेम-मन्दिर’ में कोई-

‘कुबेर’ आ बसने लगा-    

इससे हटा लें देश को |

आओ बचा लें देश को !!३!!

 


हमको यही अब खेद है |

भावों में सबके भेद है ||

खेला विदेशों ने इसे –

समझा इसे तो ‘गेंद’ है ||

‘गन्दी सियासत’ का कोई-

यह खेल अब खलने लगा-

अब मत उछालें देश को |

आओ बचा लें देश को !!४!!

  

 



कितने ‘अँधेरे’ बढ़ गये !

‘कुण्ठा के घेरे’ बढ़ गये ||

‘क्यारी’ में हर “प्रसून” की-

‘काँटे घनेरे’ बढ़ गये ||

‘काला अँधेरा’ नाग सा-

‘उम्मीद’ को डसने लगा |

दें कुछ उजाले देश को |

आओ बचा लें देश को !!५!!

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About This Blog

साहित्य समाज का दर्पण है |ईमानदारी से देखें तो पता चलेगा कि, सब कुछ मीठा ही तो नहीं , कडवी झाडियाँ उगती चली जा रही हैं,वह भी नीम सी लाभकारी नहीं , अपितु जहरीली | कुछ मीठे स्वाद की विषैली ओषधियाँ भी उग चली हैं | इन पर ईमानदारी से दृष्टि-पात करें |तुष्टीकरण के फेर में आलोचना को कहीं हम दफ़न तो नहीं कर दे रहे हैं !!

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